Sunday, May 2, 2021

विचारणीय : कभी गुलाबचंद कटारिया तो कभी गुलाब कोठारी, आखिर कब तक सहेगा क्षत्रिय समाज

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क्षत्रिय समाज के खिलाफ आखिर यह सब कब तक होता रहेगा।

देश के लिये मर मिटने वाले और अपना सब कुछ त्यागने वाले क्षत्रिय समाज (Kshatriya society) को आखिर कब तक अपमान के कड़वे घूंट पीने पड़ेंगे। कभी गुलाबचंद कटारिया (Gulabchand Kataria) जैसे नेता तो कभी गुलाब कोठारी (Gulab Kothari) जैसे कथित बुद्धीजीवी पत्रकार आखिर कब तक क्षत्रिय समाज की अस्मिता पर हमला बोलते रहेंगे। पहले कड़वे बोल बोलकर और तथ्यहीन बातों पर लेखनी चलाकर फिर चार लाइन में माफी मांगते रहेंगे। अगर यह सबकुछ ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब आने वाली पीढ़ी हमारे गौरवशाली इतिहास (Glorious history) को संदेह की दृष्टि से देखने लगेगी। क्योंकि किसी बात को अलग-अलग मुंह और अलग-अलग तरीकों से बार-बार गलत तरीके से दोहराया जायेगा तो वह प्रथमदृष्टया इंसान को सही लगने लगती है. 

कटारिया और कोठारी की मानसिकता को समझें

राजस्थान पत्रिका के मालिक एवं प्रधान संपादक गुलाब कोठारी ने दो दिन पहले 30 अप्रेल के अंक में लिखे अपने अग्रलेख 'सत्ता मालदार' की शुरुआत ही क्षत्रिय समाज के पूर्वजों के अपमान से की है। गुलाब कोठारी ने क्षत्रिय समाज के पूर्वजों को 'मर्यादाहीन महाराजा' बताकर जिस तरह से तुच्छ ज्ञान का प्रदर्शन किया है वैसी उनसे कभी उम्मीद नहीं की जाती है। लेकिन उन्होंने ऐसा किया। वहीं पिछले दिनों राजस्थान विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया ने विधानसभा उपचुनाव के दौरान 12 अप्रेल को राजसमंद के कुंवारिया गांव में राष्ट्र गौरव महाराणा प्रताप को लेकर ओछे शब्दों का प्रयोग किया था. 

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राजस्थान पत्रिका में 30 अप्रैल को प्रकाशित गुलाब कोठारी का आलेख।

क्षत्रिय समाज का इतिहास निसंदेह किताबों में 'स्वर्ण अक्षरों' में दर्ज है। लेकिन आज किताब कोई पढ़ता नहीं है. सोशल मीडिया ही सर्वेसर्वा है। आज सोशल मीडिया से ही 'मीडिया' चल रही है. युवा पीढ़ी उसी पर टिकी है। वह वहीं से ज्ञान लेती और उसी पर अपने विचार व्यक्त करती है। इतिहास की किताबें अलमारियों में रखी हैं। जबकि वर्तमान में लिखा और बोला गया सबकुछ 'ऑनलाइन' है। वह वैश्विक यात्रा करता है। लिहाजा आज किताब की बजाय ऑललाइन ज्ञान ज्यादा हावी है। आज हर कोई भी किसी भी तरह के तथ्य रखकर अपने आप को बुद्धजीवी साबित करने में लगा है। इसका अगर समय रहते पुरजोर विरोध नहीं किया गया तो ऐसे नेताओं और लेखकों-पत्रकारों के हौंसले बुलंद होते जायेंगे। दोनों ही प्रकरणों में क्षत्रिय समाज ने जिस तरह से सोशल मीडिया के माध्यम से शालीनतापूर्वक जो विरोध दर्ज कराया वह काबिल-ए-तारीफ है। 


दर्द का विरोध करना उससे भी ज्यादा जरुरी है

फिलहाल केवल इन दो प्रकरणों की बात करें तो खुशी इस बात है कि हमें इन कड़वे बोल और असत्य लेखनी का दर्द होने लगा है। यह दर्द जरुरी है। इस दर्द का विरोध करना उससे भी ज्यादा जरुरी है। क्योंकि पुरानी कहावत है कि ''बिना रोये तो बच्चे को मां भी दूध नहीं पिलाती''। वैसे ही बिना विरोध दर्ज कराये अपने शब्दों को वापस लेने की कोई बात नहीं करता और ना ही खेद प्रकट करता है। इन दोनों प्रकरणों में क्षत्रिय समाज बंधुओं ने जिस तरह से एक स्वर में पुरजोर विरोध जताया तो परिणाम आपके सामने है। बीजेपी नेता गुलाबचंद कटारिया को भी तीन बार माफी मांगने पर मजबूर होना पड़ा वहीं राजस्थान पत्रिका को भी गुलाब कोठारी के आलेख के लिये स्पष्टीकरण (खेद) प्रकाशित करना पड़ा। इससे पहले पत्रिका ने हाल ही में पुलिस महकमे पर भी ओछी टिप्पणी की थी। उस मामले में भी विरोध होने पर पत्रिका खेद प्रकट करना पड़ा था। किसी भी अखबार के लिये एक ही सप्ताह में दो बार खेद प्रकट करना साबित करता है कि अखबार की टीम में गंभीरता की कितनी कमी है। 

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सोशल मीडिया की टिप्पणी आंखें खोलने के लिये काफी है

गुलाब कोठारी की ओर से अपने अग्रलेख में लिखे गये अमर्यादित शब्द के विरोध में सोशल मीडिया पर एक क्षत्रिय की ओर से लिखा गया आलेख यहां बेदह प्रासंगिक है। वहीं श्री क्षात्र पुरुषार्थ फाउंडेशन की ओर से गुलाब कोठारी को लिखे गये पत्र से शायद उनकी आंखे खुल जानी चाहिये। आप भी पढ़िये दो खुले पत्र। 

स्व० श्री कर्पूर चन्द्र जी कुलिश के पुत्र गुलाबजी कोठारी,

    नमस्कार 

                आपके आलेख तब से पढ़ता आ रहा हूँ जब से आपने ‘मंथन’ शीर्षक से लिखना आरंभ किया था, जो बाद में पुस्तकाकार रूप में भी पत्रिका ने प्रकाशित करके बेचा। आपको व्यक्तिगत रूप से नहीं देखा किन्तु चित्रों के माध्यम से इतनी बार देखा कि हम आमने-सामने हों तो आपको पहचान जाऊँगा । सत्य कह रहा हूँ कि आपके आलेख पढ़ कर और आपका छायाचित्र देख कर मैं सदैव यह सोचता था कि इस आदमी द्वारा लिखे गये सूचनापरक (ज्ञानपरक या अनुभवपरक नहीं) लेख, संस्कारों के प्रति लेखों में टपकती हुई चिन्ता और अन्यथा लिखे लेख पढ़ कर आपके बारे में पाठक के मन में बनने वाली छवि का आपके छायाचित्र से बिल्कुल भी मेल नहीं बैठता।सोचता था मैं ग़लत हूँ; कभी आपसे रूबरू मिलूँगा तो मेरा यह भ्रम दूर हो जायेगा और आपको शायद समाज में संस्कारों के गिरते स्तर के प्रति सच्चे मन से चिन्तित होने वाले इन्सान के रूप में पाऊँगा ।

       आप द्वारा आज ३० अप्रेल, २०२१ के ‘राजस्थान पत्रिका ‘ के मुख्य पृष्ठ पर  ‘सत्ता मालदार’ नामक एक लेख लिखा गया है, जिसकी शुरुआत आपने  ‘मर्यादाहीन महाराजाओं से छुटकारा पाने’ शब्द लिख कर की है।

       इस बारे में कुछ बातें स्पष्ट कर दूँ.......। आपने लिखा है—‘ऐसी व्यवस्था(राज नहीं)’ जबकि ‘राज ही’ चाहा गया था तत्कालीन उन तथाकथित नेताओं द्वारा, यह बात अब स्पष्ट हो चुकी है और आपके कई लेखों में यह आपने ही लिखा है, आप कहेंगे तो मैं उन लेखों को आपके समक्ष ला दूँगा ।

   ‘मर्यादाहीन महाराजा’ जिनके लिये आप उपयोग कर रहे हैं, तो जहाँ तक मुझे ध्यान है आप सोडा गाँव के  रहने वाले हैं, जो तत्कालीन जयपुर राज्य के अन्तर्गत आता था। उस राज्य में जब से जयपुर बसा है तब से लेकर अर्थात् जयपुर के संस्थापक महाराजा सवाई जयसिंहजी से लेकर स्व० महाराज कुमार ब्रिगेडियर श्रीमान भवानीसिंहजी तक (जिनके समय में यह तथाकथित संप्रभु लोक कल्याणकारी धर्मनिरपेक्ष समाजवादी प्रजातांत्रिक गणतंत्र रूपी राज  -व्यवस्था नहीं- आया है) एक भी राजा का उदाहरण आप दे दीजिये, जिसने मर्यादाहीन आचरण किया हो।

       यदि महाराजा मर्यादाहीन होते श्रीमान जैसा  आप ‘श्रीमान’ मान रहे और उनके लिये शब्दों का उपयोग कर रहे हैं तो प्रजातांत्रिक चुनाव प्रणाली में भाग लेने वाले इन राजाओं को लाखों वोटों के जीत के अंतर से ये जनता उनको लोकसभाओं और विधान सभाओं में चुनकर न भेजती। संभवतः सबसे अधिक वोटों के अंतर से जीतकर आने के जिस रिकॉर्ड को आज ७५ वर्ष के लोकतंत्र के  ‘ये मर्यादित आचरण वाले नेता’ तोड़ नहीं पाये हैं; उस रिकॉर्ड को क़ायम करने वाली जयपुर राज की-जिस राज्य की आपके ख़ानदान में पिता के समय तक की पीढ़ी प्रजा थी- की महारानी ही थी जिन्हें आप श्रीमान मर्यादाहीन कह रहे हैं और आपको याद दिला दूँ इस अटूट रिकॉर्ड को बनाने में सहयोग और समर्थन देने वाली आम जनता ही थी; कोई EVM मशीनें नहीं।

         और संपूर्ण भारत में एक भी ‘RULING PRINCE’ का उदाहरण आप ‘श्रीमान’ मुझे दे दीजिये, जो भारी मतों से जीत कर नहीं आया हो, जिसे जनता ने भारी समर्थन और सहयोग नहीं दिया हो।

     आप द्वारा बताये गये ‘मर्यादाहीनों’ का एक उदाहरण आप ‘तथाकथित मर्यादितों’ की आँखें खोलने के लिये काफ़ी होगा। बीकानेर के महाराजा करणीसिंहजी- जो पाँच बार (१९५२-१९७७ तक) लगातार बीकानेर संसदीय क्षेत्र से लोकसभा में जनता द्वारा (कुल पड़े मतों में से ७०% से अधिक मत अपने पक्ष में लेकर) चुन कर भेजे गये।आख़री चुनाव में आपकी जीत का अंतर १ लाख से कम वोटों का रहा था । श्रीमान कर्पूर चन्द्र जी कुलिश के पुत्र गुलाबजी द्वारा बताये गये इन ‘मर्यादाहीन महाराजा’ ने अगला चुनाव यह कह कर लड़ने से मना कर दिया कि - अब जनता का प्रेम और विश्वास मुझमें घट रहा है। इनसे आप तुलना कीजिये आप ‘श्रीमान’ द्वारा बताये गये ‘राज नहीं व्यवस्था चाहने वाले’ प्रजातंत्र के रक्षकों की जो राजस्थान राज्य एक वोट से हार गये तो बेशर्मी पूर्वक केन्द्र में उसी जनता पर मंत्री बना दिये गये। आपको थोड़ा आश्चर्य से और भर दूँ- महाराजा करणीसिंहजी ने पाँचों चुनाव किसी पार्टी की नाव पर चढ़ कर नहीं लड़े थे; बल्कि निर्दलीय लड़ कर ७० जनता का विश्वास और प्रेम उनमें था। इस बात को सिद्ध किया था। आप बतायें कि जनता की उनके प्रति  समझ सही थी या आप जैसे बुद्धिजीवी और वित्तजीवी बता रहें हैं जो पिछले ७५ वर्षों से, वह सही है।

          फिर आप ही बतायें कि मैं आपकी लिखी हुई बात को किस प्रकार गले उतारूँगा कि मेरे पूर्वज आप बता रहे हैं वैसे थे। आप बुद्धिजीवियों और वित्तजीवियों को अब इस बात को समझना चाहिये कि आप ‘राजा लोग अच्छे नहीं थे’ इसी गढ़े हुए नैरेटिव को लेकर प्रजातंत्र ले ज़रूर आये किंतु इस प्रजातंत्र की जड़ें  जमाने के लिये आप उक्त झूठे नैरेटिव से ही काम चलाने की असफल कोशिश न करें बल्कि अब ईमानदारी से मेहनत करें और वास्तव में प्रजातंत्र को ‘राज नहीं व्यवस्था’ मान कर कार्य में जुटें तो आप प्रजातंत्र को हम सभी के लिये उपयोगी साबित कर सकेंगे—जो आप भी जान रहे हैं-श्रीमान, कि यह आप दोनों वर्गों द्वारा किया जाना लगभग असंभव हो रहा है।

        इन बुद्धिजीवियों और वित्तजीवियों की चालाकी को श्रमजीवी तो पहले समझ चुका था और आयुधजीवी भी अब समझ रहा है।अत: मेरा इशारा किस तरफ़ है यह आप काफ़ी समझदार(जिसके सबूत आपको सार्वजनिक मंचों से इस हेतु मिले पुरस्कार हैं) होने की वजह से भलीभाँति समझ रहे हैं, सो आप (चूँकि आपकी इतिहास विषय में गति नहीं है) भविष्य में मेरे पूर्वजों के लिये ऐसे शब्दों का प्रयोग करने से परहेज़ करेंगे, ऐसा आपके व्यक्तित्व को समझने की वजह से मैं आशा से भरे 

 मन से आपसे करबद्ध प्रार्थना करता हूँ । 

      मैं जानता हूँ कि मेरा यह mail यदि आप तक पहुँचा तो आपको बेधेगा परंतु इससे कम, मैं आपके प्रति कुछ कर नहीं सकता था, इसलिये आप मुझे समझेंगे, इस विश्वास के साथ ................

       एक क्षात्र धर्मी


श्री क्षात्र पुरुषार्थ फाउंडेशन की ओर से गुलाब कोठारी को लिखा गया पत्र


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श्री क्षात्र पुरुषार्थ फाउंडेशन।

इसी तरह के और भी पत्र लेखक को क्षत्रिय समाज की विभिन्न संस्थाओं की ओर से लिखे गये हैं

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यह क्षत्रिय समाज की अस्मिता पर हमला है

यूं देखे तो मुंह से निकला हुआ और छपा हुआ वक्तव्य को ना तो मिटाया जा सकता है और ना ही भुलाया जा सकता है। लेकिन ऐसा करने वालों को सबक जरुर सिखाया जा सकता है ताकि भविष्य में कोई भी क्षत्रिय समाज के बारे में अर्नगल बोलने या लिखने की हिम्मत ना कर सके। जिस इतिहास को क्षत्रिय समाज ने अपना सबकुछ न्योछावर करके लिखा उसके बारे में कोई कुछ भी बोल दे यह असहनीय है। यह क्षत्रिय समाज की अस्मिता पर हमला है। इनका सही समय पर विरोध किया जाना बेहद जरुरी है। 


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पद्मावत ने दिखाया फिल्मकारों को आइना

क्षत्रिय समाज के बारे में ये दो प्रकरण पहली बार नहीं आये हैं। इससे पहले भी आते रहे हैं। फिल्मकारों ने तो ठाकुर बिरादरी को जुल्म और अन्याय का प्रतीक ही मान लिया और उसे बार-बार जनता के सामने 'आततायी' के रूप में ही पेश किया। लेकिन कभी क्षत्रिय समाज ने उसके खिलाफ आवाज नहीं उठायी। अगर उठायी तो भी दबी कुचली आवाज में। उसका कभी कोई असर नहीं हुआ। उसी का परिणाम है कि फिल्मों में बहुत सी बार क्षत्रिय परंपराओं को बेहद गलत तरीके पेश किया जाता है। लेकिन गत वर्ष 2018 में आई संजय लीला भंसाली की फिल्म 'पद्मावत' के मामले में ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ पर विरोध के स्वर उठाने के बाद अब फिल्म जगत कुछ सोचने पर मजबूर हुआ है। हालांकि अब भी क्षत्रिय समाज के तथ्यों और परंपराओं से खिलवाड़ करने से वे बाज नहीं आ रहे हैं, लेकिन अगर समय पर ही उनका पुरजोर विरोध दर्ज करा दिया जायेगा तो भविष्य में कोई ऐसा काम करने से पहले चार बार सोचेगा। 

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